पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५७

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घिरी मेखला से कटियाँ, थी लटक रही तलवारे, उगीरित होती श्री कण्ठो से जय की ललकार, रण में रंग खेलने चल दी थी ये सब पार्वतियाँ, चल दी थी गान्धार देश की लज्जा रखने सतियाँ । ये बालाएँ पहुँच गई क्षण भर में युद्ध-स्थल मे, नये प्राण पाए योद्धानो के विशृङ्खल दल मे, मा, वहनो, पुत्री, नारी को देख बढे हिय उन के, फिर क्या था ? वे लगे बेधने अरि-दल को चुन-चुन के । क्षण भर में गान्धार दश की अक्षौहिणी बढी यो,- सहसाऽक्रमण कारिणी सरिणी की हो धार चढी ज्यो। योद्धाओ की हुकारो से दिशा गूंज उट्ठी सब,- गिरि-गिरिसे प्रति-गर्जनकी ध्वनि घहर-घहर उट्ठी तब। परशु परशु से लडा, भिड पडी आपस मे करवाले, गदा गदा से जुटी, झन-झनाए भालो से भाले, धन्वा से उड चले बाण, वे बरसी तीखी बरछी, करने लगे प्रहार वीर सब लिये कटारे तिरछी । रण-चण्डी-सम जूझ उठी वह राजसुता सुकुमारी, उसकी आँखो मे छाई थी रण की एक खुमारी, उस कृतघ्न राजा की छाती में था उस ने साधा,-- अपना तीर, और फिर उसको खूब' जकड कर बाँधा ।