पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५७२

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ऊम्मिला ८१ जबकि राष्ट्र-मद, ज्वाला-गिरि- सम, आग उगलने लगता है,- जन-समूह के हृदयो मे जब, भाव आसुरी जगता है, तब स्वधर्म है यही, चले हम- सामूहिकता के प्रतिकूल, और करे उच्छिन्न निरन्तर, निज स्वदेश-जन-मन की भूल, देश विदेश, सकुचित जन का, है अनुचित सकुचित विचार, है मनीषियो का स्वदेश वह, जहाँ सत्य-शिव का विस्तार । ८२ है जग के नागरिक सभी हम, सब जग भर यह अपना है, सीमित देश-विदेश-कल्पना, मिथ्या भ्रम का मपना है, देश-काल का अतिक्रमण कर बनता है हमको विजयी, फिर क्यो खीचे हम अपनी यह सीमा - रेखा नयी-नयी ? जो सम्मार्ग-गमन करता है वही हमारा बन्धु, सखा, सत्य पराड मुख, सदा त्याज्य है - हो रावण या शूर्पणखा ।