पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५७७

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षष्ठ सर्ग सुसन्देश वाहिनी अथकता मेट रही स्थल का अन्तर, सुविचारो के सुदृढ सेतु से, मिटा जलधि का महदन्तर, सग्रह भस्म हुआ, हिय बैठा- खर तप की धूनी ताने, हुए द्वीप-द्वीपान्तर अपने, देश-विदेश अब केसी परिधियाँ सकुचित ? अब केसा सीमित घेरा? मुक्त अात्म-विस्तार हुआ है, केसा तेरा-मेरा ? अपने, अब ६२ सब मेरा-तेरा है, तेरा- मेरा, मै तू, तू सुख मे, तब मै सुख मे हूँ, तू दुख मे, मै दुख मे हूँ- छटा छिटक फैली यह मेरी, तू मेरा, लका मेरी, वह किष्किधा वह कोसल नगरी तेरी, कोसल नगरी ही लका है, लका है कोसल नगरी, भाण्ड हुआ जल-राशि-निमज्जित, भिन्न कहाँ वापी, गगरी ? नगरी तेरी,