पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५८

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१०० बस, फिर तो अनार्य-दल भागा पीठ दिखाकर ऐसे,- भाग खडे होते है मृग सब देख सिह को जैसे, आर्य नृपति नरवर कुमार हो मुक्त आ गए दोनो, देख दृश्य, वे निज आँखो का सुफल पा गए दोनो। राजा ने सब ललना-गण को दण्ड प्रणाम किया तब अपने लोचन के पानी से सबको अर्घ्य दिया तब, हो प्रसन्न भाई ने च्मा निज भगिनी के शिर को,- ज्यो हेमन्त चूम लेता है अपनी बहिन शिशिर को। १०२ मेरी कथा समाप्त हुई है, अब तेरी बारी है,- क्यो न ऊम्मिले ? तू तो मेरी नन्ही-सी प्यारी है, माँ ने तुझे कहानी जो थी कही, उसे तू कहना, देख कही पागलपन कर के चुप बैठी मत रहना ।" १०३ "सीता जीजी, सकुचाती हूँ अब मै वह कहने मे, भला समझती हूँ मैं अपना बस अब चुप रहने में, की है श्रवण तुम्हारे मुख से यह सुन्दर-सी गाथा- जिस में वर्णित अद्भुत बल उस आर्य सुन्दरी का था। १०४ मेरी कथा बहुत छोटो-सी है, क्या उसे सुनाऊँ ? उसको कह कर के, जीजी, मै कैसे तुम्हे लुभाऊँ रहने दो , वह मेरी गाथा तुम्हे नही भाएगी, मम गाथा, तव गाथा-पटु मन नहीं लुभा पाएगी।" ?