पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५८५

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पष्ठ सर्ग १०७ नित यह विप्लव गायन गाते- नित साधन करते-करते, बढे चलो जीवन-पथ मे सब हे जन, पग धरते-धरते, हरते जग की तिमिर कालिमा- नव प्रकाश भरते - भरते अपना आप पहचानो भवसागर तरते - तरते, जग मे विप्लव के तत्त्वो का निशि-दिन अथक प्रसार करो, गतानुगति विधि-जनित,तिमिर-भय, यह जग का भू-भार हो। जीवन है सद्ज्ञान-गम्य गति, नही तिमिर आवृत गति-वक्र, जीवन है पावक-चिनगारी, जीवन है फिर विप्लव-चक्र, भौतिकता की चाह भयकर है जीवन - विकार, राजन्, सचय नही, अपितु जीवन मे-- है नित त्याग-सार, राजन्, अत आर्य संस्कृति ने जग को दिया मन्त्र स्वाहा स्वाहा आत्म-हवन से ही मिलता है, आत्व-रूप निज मनचाहा।