पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५९४

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कम्मिला i भूधर, १२५ । प्राज ढूंढती है आँखे उन- महाबली नर - वीरों को, उन दिग्विजयी अति पराक्रमी, सुदृढ धनुर्धरे धीरो 'को, जिनकी घन' हुकार-मात्र से कम्पित होता था अम्बर, जिनके पदाघात से डगमग डुलते थे 'दिगज जिनके मुकुट किरीटो की द्युति खर रविकर के पटतर थी,- किसे ज्ञात थी, उनकी महिमा हा, इतनी क्षण-नश्वर थी ? १२६ एक स्वप्न की लीला के सम वह ठकुरास विलीन हुई, वह गरिमा, वह ठकुर संहाती, छिन भर में ही छीन हुई, लीन हुई है वे सब बाते भूतकाल अन्तस्तल मे, पर उनकी छायाँ बिम्बित है वर्तमान के कलजले मे, 'आर्य, एक युग था वह भी जो- प्रगति-प्रेरणादायक चिर विकास की उलझन का वह- युग अच्छा परिचायक था । था, ५८०