पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

षष्ठ सर्ग १२७ डगमग डगमग करती, कपती, पग पर पग धरती धरती,- कभी फिसलती, कभी घिसलती, सँभल - संभल डरती - डरती, जन-सामूहिकता, गति-पथ पर, निशि दिन चलती रहती है, यह विकास स्रोतस्विनी, प्रभो, छिन - छिन बहती रहती है । इस विकास का अमिट अश है भौतिकवाद - मयी उन्नति, चाहे, वह न भले ही होवे, अन्तिम ध्येय, चरम इति-गति । १२८ रावण - वाद, विकास मार्ग का, पथ परिचायक प्रस्तर रावण-वाद, प्रकृति तत्त्वो का, सुन्दर ज्ञान अनश्वर है, मानस-दिड मण्डल को विकसित करता है भौतिक विज्ञान, रावणत्व में सदा निहित है अन्वेषण की अथक उडान, रावणीय यत्नो के बिन किमि खुले प्रकृति के चूंघट-पट ? इसीलिए आवश्यक है इस- जग मे निरलस रावण-हठ । १८१