पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५९९

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षष्ठ सर्ग उस युग मे जीवन था, मद था, था उत्साह, अमन्द, अभग, उस युग में थी कर्म-उग्रता, था यौवन के मद का रग, प्रलयान्ता आशा थी उसमे, उसमे थी सान्ता लीला, हन्त, उस समय उठ न सकी थी क्रिया अनन्ता गति-शीला, कई निराशाये भी थी वाँ, आशाएँ भी कई-कई, मद-माती-सी कर्म-प्रेरणा आती थी नई-नई। ये पल उस युग की असफलतामो सोते से जागे, सभी सफलताएँ उस युग की नाच रही दृग के प्राग, " क्या-क्या भव्य मूर्तियाँ थी वे, जो अब काल-विलीन हुई, क्या ज्वलन्त प्रतिभा थी वह जो- निष्प्रभ, श्रीहीन हुई, सुसफलता - असफलताओ के- पुज, और गत-युग-वैभव, अल्हढ यौवन कहाँ ? कहाँ वह, तेरा उच्छ खल शैशव ? भव