पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६०

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लो, माँ बैठी, हम दोनो की बाट जोहती होगी, सूची सूत्र लिये, मालिन-सी, सुधर सोहती होगी, अपनी आख्यायिका कहो तुम, यो सकुचाती क्यो हो? छुई-मुई-सी आज कहो तो तुम मुरझाती क्यो हो?" १११ "अच्छा जीजी, वही कहानी मैं हूँ तुम्हे सुनाती, है छोटी सी तो भी वह है मुझ को बहुत सुहाती, मेरी गाथा में न मिलेगी वह शोभा पर्वत की, फिर भी, सुनो, है नहीं इस मे यदपि चमक मर्कत की। किसी एक जगल मे रहता झुण्ड कपोतो का था, हो स्वतन्त्र उस वन-प्रदेश मे वह विचरा करता था, फैला कर अपने पखो को वे घूमा करते थे, वन की निर्जनता को अपने कूजन से हरते थे । बडे-बड़े वृक्षो से पूरित शोभित था वह वन यो,- वृद्धिगत पुण्यो से होता शोभित नर का मन ज्यो, वे विशाल पादप पृथ्वी के प्यारे वक्षस्थल पर- शिशु-क्रीडा करते थे नित प्रति हिल-डुल मचल-मचल कर । अखिल निम्न भूभाग जिस समय सोता था निदिया मे,- अन्धकार का राज जिस समय रहता था दुनियाँ में,- उस अवसर में प्रात समीरण आकर हलके हलके- जागृत करता था वृक्षो को धीरे-धीरे चल के ।