पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६०३

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षष्टसंग खाते-खाते, शुद्ध रूप झलकी, काम, जड़ता में १४३ झ वानर को वा' विरहित कर, दखलाया जग का कौतुक, ह्य मे भर दी ज्ञान-पिपासा, बागी प्रश्न-वृत्ति उत्सुक, वृक्षो के फल चाट पडी अब श्रुति-फल की, राम-कृपा से हिय-दर्पण म, आभा किन्तु, राम के लिए नहीं यह कोई वडा अनोखा चेतनता भरना है उनकी क्रीडा अविराम ! १४४ हाँ, अब होगा, नृपति, हमारी - कठिन परीक्षा का प्रारम्भ, क्योक्ति राम सामीप्याश्रित यह अब व रहेगा दृढ अवलम्ब, उत्तर जन- पद चौदह वर्षो- से टकटकी लगाए आगमन - पन्थ मे, निज दृग सुमन विछाए है, प्राज राम की उत्तर-यात्रा लक्रा से , होगी प्रारम्भ अथवा आज दाक्षिणात्यो का हृदय- भवन, होगा निस्तम्भ । राम-पुन ५८६