पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६०६

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अम्मिला १४६ वह देखो आसीन हुए है लक से पुष्पक मे सिय - राम - लखन, देखो, लकेश्वर करते है रघुपति को अन्तिम बदन, श्री लक्ष्मण से भेट रहे धीर विभीषण विचलित से, वहे देखो, कुछ ढरक रहे है- आसू - मुक्ता विगलित से, वह देखो, वह उठा भुमि से राजस सा पुष्पक यान, वह देखो, वह चला मँडराता वित्तेश-विमान । १५० चढ-चल, चढ-चल, अरी कल्पने, सीता-पति के सँग-सँग । तू, सुन्दरि, गगन-चारिणी बन कर निरख-परख अम्बर रेंग तू, उडी चली' चल कौशलपुर तक, बदती होड वायु-गति से, सुन, हँस कहती है कुछ, सीता, श्री उम्मिला-प्राण-पति से, शन्य' गगन 'मे अमित हिय भरी लहरी रही वचन-ध्वनियाँ, देवर-भाभी' को वचनो से- बरस · रही मधु-रस कनियाँ । . ५६२