पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६०७

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षष्ठ सर्ग » "हाँ कल्याणि" "देवर "कहो क्या बात उठ रही है मन में ? अब तो यह महदन्तर घटता जाता है प्रति क्षण-क्षण म," सुन सीता के वचन सुलक्ष्मण, इकटक उन्हे निहार रहे, चिन्तन-नीद भरे नयनो मे अकथित बात विचार रहे, "क्या देखो हो मुझको, देवर, यो तुम सोए-सोए से? सतत जागरण-थकित लगो हो तुम तो खोये - खोये से । १५२ गुडाकेश, कुछ बोलो तो जी, यो न निहारो ठगे-ठगे, कहो, हो रहे है क्यो ये दृग कुछ सोये, कुछ जगे-जगे ? क्या हिय मे आ बैठी कोई सुघड़ नीद की ठकुरानी ? क्या लका के किसी झरोखे लगन रह गई अरुझानी ? अथवा क्या कोई वनबाला कुछ टोना कर गई, कहो? किसकी यह सस्मृति नैनो मे अलस चाह भर गई, अहो?" ५१३