पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

षष्ठ वर्ग उस विचार "होने को थी सौत तुम्हारी," "वह द-रानी बन न सकी ।" "कैस बनती ? को जब जठानी सह न सकी ? बहन-बहन सब मिल बैठी है बन दे - रानी - जेठानी, अब औरो की गुजर कहाँ ? क्यो- है न ठीक, भाभी रानी ?" "तो यो कहो कि बहन ऊम्मिला को स्मृति म ही हो डूबे, अब समझी, हो इसीलिए यो- उत्सुक से, ऊबे - ऊबे । मैं समझी थी कि तुम हो गए लालन, पूरे वैरागी, समझी थी कि बन गए हो तुम- निरे उकठ, नीरम, त्यागी । देख तुम्हारी विकट माधना, मुझे हो गया था भ्रम, जी, पर, मन-मन फोडा करते थे- तुम लड्डू, यह अब समझी, धन्य भाग्य ऊम्मिला वहन के, ऐसा ढोगी पति पाया, भीतर-भीतर रस, ऊपर से- फैलाई यह यति-माया । ५६५