पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६१

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११५ वृक्षो की लहलही डालियाँ, ऊँची-ऊँची उठ कर- अपरस्परवेष्टिता , नृत्य वे नित करती थी जुट कर, पत्ते भू पर इधर उधर गिर कर मारे फिरते थे,- मानो नृत्य-तरगित-भुज से कनक बलय गिरते थे । प्रात काल स्वर्णमय डाले नित्य हिला करती थी, आतुर-सी वे बाल सूर्य के गले मिला करती थी, तब कपोत समुदाय, फडफडा कर अपने पखो को, करतल ध्वनि कर,रवि-कर-अर्पित करता था अगो को। जब रवि अपने प्रखर करो मे ज्वाला ले आता था,- झुलसाने को पृथ्वी जब वह क्रोधित हो जाता था,- तब वे सधन वृक्ष उस भू की करते थे रखवारी, ज्यो सपूत बालक करता है रक्षित, निज महतारी । छन-छन कर वृक्षो से आती थी सूरज की किरणे - वसुन्धरा के ललाट से जल मुक्ताओ को बिनने, मानमर्दिता आततायिनी मानो लडते-लडते- धीरे से चल दी हो हा हा खाने डरते-डरते । अपने-अपने नीडो में नित सब कपोत मतवाले- क्रूजन करते थे पी-पी कर तोष-सुरस के प्याले, वे प्रमुदित हो सदा चिढाते थे निदाध की ज्वाला शान्तिरूपिणी उन के नीडो की थी मजुल माला।