पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६१८

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कम्मिला राम कृपा १७३ जीवन के अपराह्न काल मे दारुणता का शल्य नहीं इसमे गति है, निरलसता है, पर वह प्रौच्छृ खल्य नही, गति मे भी थिरता है, यति है, अब कृति मे भी निष्कृति है, रति मे भी है अरति निरन्तर, अब स्मृति मे भी विस्मृति है, से सहज उदासी अमल वृत्तियाँ जागी है, अब लक्ष्मण अनुरागी भी है एव पूर्ण विरागी है। १७४ नही ऊम्मिला है अब 'मेरी', वह-मै एक स्वरूप हुआ जैसे रघुपति का स्वरूप वह- सीता-रूप अनूप हुन्मा, सीता बिन' यह राम-नाम ध्वनि निपट अधूरी है जग मे, सीता-राम, पूर्ण-ध्वनि बन कर प्रकटी रसना के मग मे, सीता-राम, ऊम्मिला-लक्ष्मण, एक रूप बन अपने को खोया जगल मे-- अच्छे हम वन गए सभी। गए सभी, ६०४