पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६१९

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षष्ठ सर्ग दाह, १७५ इसीलिए अब, देवि, नही है, वह मिलनोत्कण्ठा का पीतम छाए है अन्तर मे, रही न 'क्वासि? क्वासि?' की चाह, सतत प्रयत्नो से पाया है स्नेहोदधि का थाह-अथाह, 'पैठ गया हूँ अतल-वितल लौ, अब क्यो कडे वेदना पाह? यौवन सरिता मिली सिन्धु में अब क्यो आवे उलट प्रवाह पूर्ण वैपूर्णग्व स्वाहा अब कैसा प्रवाह-उत्साह ? ? उस अशोक उपवन में तुमने, वरदे, परम सिद्धि पाई, इधर विजन में रामानुज ने अपनी सुध-बुध बिसराई, 7 राम तो सदा एक रस पर, तप-साधन उनका भी,- परिपक्वावस्था को पहुँचा, है इस जगल मे, भाभी," "और, लखन, उनकी गति क्या है जो रह गए अवधपुर मे "एकोऽह-भावना जगी है, क्या उन सबके भी उर मे?"