पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२

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& सध्या को अन्तिम प्रणाम जब रवि करता था वन को- तब कुकुम से नहला देता था निलयो के तृण को गुटुर-गुटुर कर सब कपोत गण धन्यवाद देते थे, फिर उस विस्तृत नैशाञ्चल को आप अोढ लेते थे। १२१ अरी मिले ।" "हॉ," "क्या मेरी वे बाते थी ऐसी- जिन को सुनते-सुनते तुम अति चकित हुई थी वैसी?" 'हॉ जीजी," "चल पगली, भूल न जानो तुम अपने को सुन तव बाते लगी देखने में चित्रित सपने को । १२२ आज तुम्हारे मुख से यह वन-वर्णन सुनकर रानी, मैंने सोचा, आज आ गई वन-देवी कल्याणी ।" “जीजी, यो न बनाओ, मॉ की बाते यदि तुम सुनती- तब मेरी बातो को मन मे यो न कभी तुम गुनती। १२३ हा, तो सुनो, निरापद वन मे सब कपोत रहते थे, नत्य निपट नि शक कपोती-सग उडा करते थे, एक नीड मे एक प्रफुल्लित कबूतरी बसती थी- निज कपोत की गुटुर-गुटुर सुन वह प्रसन्न हँसती थी। - १२४ एक दिवस वह शुभ्र कबूतर कबूतरी से बोला- सुन प्यारी कबूतरी, मेरा मन है कुछ-कुछ डोला, आज दूर उड कर जाऊँगा मै अति निर्जन वन मे, और बिताऊगा अपना कुछ काल आत्म-चितन मे।