पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२०

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अम्मिला १७७ "देवि, आग मे नही तपे क्या, बान्धवगण निज नगरी के? वे जन भी क्या, देवि, नही है, पथिक हमारी डगरी के? आत्माहुति है नही अनोखी, हम लोगो का ही सौभाग्य अवधपुरी मे भी प्रकटा है यह अनुरागपूर्ण वैराग्य, यज्ञ-हुताशन धधक रहा है राम-लखन के घर में भी, ज्वलिता है चौदह वर्षों से वेदी अवध नगर में भी । १७८ सतत तप रहे है यह धूनी, चौदह वर्षों से वे भी, क्यो न जगे फिर, देवि एक-रस- पूर्ण भावना उनमे भी? वे भी सभी अवश्य हुए है नित अनुरागी-वैरागी, निश्चय ही उन सबके ह्यि में है निभ्रान्त वृत्ति जागी, तप-साधन से प्रकटे है कई नरोत्तम पुरुषोत्तम ही पुरुषोत्तम अब, जग-मग मे। अब जग मे तुम्हे मिलेगे ६०६