पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२२

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अम्मिला १८१ "नही विनोद, सत्य कहती हूँ, तुम तो, ललन, बिना श्रम ही,- करते हो तत्त्वार्थ-निरूपण, अपने अग्रज के सम ही,' "वत्सल कृपा तुम्हारी है। जो तुम ऐसा कहती हो, भाभी, मुझ पर तुम अनुकम्पा सन्तत करती रहती हो, है पैतृक सम्पदा तुम्हारी यह तत्वार्थ निरूपण, देवि, मैथिल - महाप्रसाद - राशि से मैने पाए कुछ कण, देवि । १८२ देवि, वैदेही के पिता और पति, ये दो मम पथ-दर्शक है, राम सहायक है साधन के, जनक विचार विमर्शक है, तुम्हारे भत्ता, कर्ता, ये दो ही दुखहर्ता है, मैथिलि, तव पति, पिता, यही दो- भवसागर उद्धर्ता राम, जनक की पुण्य कृपा से मैने निज स्वरूप जाना, नेत्रोन्मीलन किया उन्ही ने, तब अपने को पहचाना ।"