पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२४

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म्मिला १८५ "देवि, तुम्हारे नर-नारायण, तारी से ही लालित है, नारी - नेह - अश्रु से उनके, अग अग प्रक्षालित नारी के ही हाड - मॉस से उनका यह अस्तित्व बना, रग-रग में हो रहा प्रवाहित का रुधिर घना, नारी उनकी पोषण - की, नारी नेह - नीर - भी, नर - नारायण तप - साधन की नारी ही बाधा - हीं । नारी ही १८६ फिर वे भला क्यो न समझेगे, नारी के हिय - भावो को,- जिनने लगा दिया स्त्री के हित, अपने जीवन - दावो को ? हम नारी - सुत, नारी तो है- हृदयवल्लभा जीवन की,- क्यो न समझ पाएगे बाते सब हम नारी के मन की ? भाभी, खूब समझता हूँ मै, तव मृदु हृदय-विकम्पन को, पोष्य पुत्र हूँ मै सीता का, समझू जननी के मन को।" ६१०