पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२६

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अम्मिला पुरुष जातियो दूषण, १८६ इसीलिए कहती रहती हूँ, देवर, मै अपने जिय मे, नर क्या जाने क्या होता है, नारी के कम्पित हिय मे, यह न्यूनता नही पुरुषो की, यह तो है उन का भूषण, नहीं मानती हूँ मै इस को, का नर यदि है खर दोपहरी, तो, नारी है शीतल छाया नर - नारी दो रूप बना कर 'प्रकटी है विभु की माया ।" १६० "देवि, यदि न हो स्वीकृत मुझ को सुविचार, तो न समझना रच इसे भी, केवल मम मस्तिष्क -विकार, तुमने बड़ी तत्त्व की बाते कह दी है, भाभी, इस बार, क्षमा करो यदि मै न कर सकूँ उन सब को सहसा स्वीकार, है अवश्य ही नर-नारी के- भिन्न का भेद यहाँ, पर, अक्षर, अव्यक्त, आदि में नर-नारी का भेद कहाँ ? वैदेही के