पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२७

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षष्ठ सर्ग १६१ आदि-अन्त तो भेद रहित है, केवल मध्य भेदमय है, इसीलिए इस मध्य - काल में, भेद '- विभेद, खेद - मय है, भेद - खेद के परे पहुँचना, यही समन्नुति है जन की, नर - नारी हो, नारी - तर हो यही सुगति है जीवन की, नर नारी दोनो मे दोनो झलक उठे जब बरबस-से, तभी समझिए कि यह हुआ है हृदय प्रपूर्ण एक - रस से । १६२ विकसित पूर्ण पुरुष वह, जिस मे, हो नारी की परछाई, जो जग-जन की हृदय वेदना, समझे नारी की जिस की सर्वभूत-हित-रति मे हो नारी - हिय का कम्पन, जिस की ऑखो मे जग देखे माता की छवि का अकन, देवि, नरोत्तम है वह, जिसमें हो नर-नारी का मिश्रण, ऐसे ही नर-वर भरते है जग का सवित - वेदना-ब्रण । नाइ,