पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२८

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ऊम्मिला वह नर तो वानर है, जिस मे- नारीपन का अश वह है उपल, नही हिय, जिसमे- नही, सह - सवेदन नही, परछाई, प्रतिविकसित नर मे रहती है, कुछ नारीपन की झाई , उसी तरह ज्यो विभु मे बिम्बित, प्रकृति-नटी की पुरुष नही है टोली केवल,- वानर, विपिन-चरो की, देवि, अत नही मस्तिष्क-मात्र से है अनुभूति नरो की, देवि । भरत सदृश योगेश्वर की तुम योग - नोदना हो, भाभी, विकट तपस्वी लक्ष्मण की तुम, ज्ञान बोधना हो भाभी, पावक सम तुम परम पवित्रा, अनल दीक्षिता, तेजमयी सब कुछ देख चुकी हो तुम अब, रही कौन - सी बात नयी? एक बार हो सहन कर चुकी तुम यह पुनर्मिलन - पीडा, एक बार फिर और सही, यह- प्राणो की नाकुल क्रीडा