पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६३०

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ऊम्मिला देवि, न समझो कि मय हृदय मे, तव हिय सम अनुभूति नही, मत समझो कि नरो के हिय मे, नारी - हृदय - विभूति नही, वही विकलता, वही विमलता, वही सलिल-सा स्रोत यहाँ,, नारी-हिय-सम स्निग्ध भाव से, है ओत-प्रोत यहाँ, देवि, यहा भी लगी हुई है, कम्पित प्राणो मे फांसी, नर के हिय मे भी है सन्तत, नारी के हिय की गाँसी । १६८ सीता के हिय का आन्दोलन, लक्ष्मण अनुभव करता है, और अम्मिला का हिय-कम्पन, राम-हृदय में भरता “देवि, इधर दो नर-हृदयो मे, नारी का हिय कॅपता है, नारीपन की अग्नि-शिखा मे, नर-हिय निशि-दिन तपता है, नर मे नारी का न चिह्न तो, मानव-प्रेम-धर्म क्या है यदि नारी-पन न हो पुरुष मे, तो नर को नर क्यो चाहे ' ?