पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६३३

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न था, २०३ लखन-ऊम्मिला जब बिछुडे तब थे दो साधक पथ के, खूब चले पथ मे ये दोनो बैठे रच, न रच थके, अब जब मिले, सिद्ध थे दोनो प्रारम्भिक चाञ्चल्य हृदय-मिलन-क्षण नयन अजल थे, वहाँ हृदय चापल्य न था, नयनो मे अति नीरवता थी, वाणी में था मौन परम, हृदयो मे अनुभूति-बोध था, प्राणो मे थी शान्ति चरम, मन ही मन थे लखन निछावर एक ऊम्मिला की टक पे, और अम्मिला न्यौछावर थी उनके एक चरण नख पे । इति षष्ठ सर्ग इति श्री ऊम्मिला समाप्त । श्री अम्मिलार्पणमस्तु ॐ शान्तिः