पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तुम यदि जानोगे तो मै भी सग चलूंगी, प्यारे । मैं कैसे निकाल सकती हूँ निज प्रॉखो के तारे ? वन की निर्जनता मे तुम को मैं न कष्ट कुछ दूंगी, मधुर तुम्हारी गुटुर-गुटुर को सुन मै मस्त रहूँगी । खूब आत्मचितन तुम करना, मै तुम को ध्याऊँगी, यो आत्मोन्नति-पराकाष्ठा को में, प्रिय, पाऊँगी, किन्तु छोड कर मुझे न जाना तुम कपोत, हे मेरे । मेरी नैश जीवनावधि के हो तुम सुभग सवेरे ।' १३२ "फिर क्या हुआ ऊम्मिले? ""सुन ये रसमय वचनालियां- व्याकुल हुआ देखकर अपित चिर सनेह की कलियाँ, फिर धीरे से निज कतरी से पारावन बोला- मानो प्रेम भाव को उन ने त्याग भाव से तोला 'हे चचले, वृथा शोकाकुल इतनी तुम होती हो- नेह-पाश में बँधी हुई तुम क्यो धोरज खोती हो मै जल्दी ही आ जाऊँगा, करो न यो तुम चिन्ना, रहो नीड मे सौख्य शान्ति से कुछ दिन हो निश्चिन्ला ।' अन्य कपोतो के नीडो मे उड-उड कर तुम जाना- यो अपनी वियोग की घडियाँ सुख से, अहो, बिताना, कभी बुला लेना निज गृह मे अन्य कपोती-गण को, कभी निमन्त्रण देना अपनी उस गिलहरी बहन को।