पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

"हाँ, हॉ, पूछी मुझसे इस ने ये बाते उपवन में, मै क्या बतलाती ? मै भी कुछ समझ न पाई मन मे , अब तुम बतलाओ, री माँ, तुम हो अच्छी माँ, मेरी।" बोल उठी दोनो नन्दिनियाँ यो जिज्ञासा-प्रेरी । आन ऊम्मिला ने पीछे से अपनी दोनो बाहे,- डाल गले मे दी,-मानो दो छोटी-छोटी चाहे,- किसी वानप्रस्था की तन्मय विरत ग्रीव मे आ कर,- झूल रही हो, उस ग्रीवा को पुद पर्य्य क बना कर । माँ का अञ्चल खीचा सीता ने गोदी में गिर कर, ढाका निज मुख ज्यो किचपलता क्षणिक शान्ति से घिरकर सुख-पाशा मे एक निमिष को स्तब्ध बैठ जाती है, त्यो ही मेरी स्वप्निल ऑखे सीता को पाती है । "नन्ही सी ऊम्मिले, और तुम सीते, हठ धरती हो, मेरी छोटी-सी छायाप्रओ, तुम यह क्या करती हो ? माला मझे गूंथ लेने दो, न अब और बिलमाप्रो । सूची-सूत्र मुझे लाकर दो, उठो, दौड कर जाओ।" “परिचारिके, यहा प्राओ" यो बोली ऊम्मिल लौनी- "माँ, अपने विचार को तुम अब रख न सकोगी मौनी, मै गुर्वाणी बन बैठी हूँ, आज परीक्षा लूँगी मैं दीक्षित हूँ और आज मै तुम को दीक्षा हँगी ।"