पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/७४

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१८० अपनी दोनो ललियो की सुन बाते भारी-प्यारी, उस विदेह रानी ने अपनी सुध-बुध सभी बिसारी, दोनो को दोनो हाथो से खीच लिया गोदी मे, दोनो ने मिलकर जननी का नेह पिया गोदी मे । जनक सुगृहिणी उन दोनो से बोली उत्फुल्लित हो, लाड-प्यार के पारिजात से गिरे कुसुम मुकुलित हो, "तुम दोनो तो माला-गुम्फन मुझे बता न सकी हो, दौडा-दौडा बुद्धि-अश्व निज तुम तो आज थकी हो । १५२ तुम्हे बताती हूँ, देखो, इन सब फूलो को अब मैं,- साथ-साथ, बारी-बारी से लो, गूंथूगी जब मै,- तब नवरत्नो की-सी माला सुन्दर बन जाएगी, आर्यपुत्र के वक्षस्थल पर यह शोभा पाएगी ।" माता मिथिला-साम्राज्ञी ने सूची ली यो कह के,- लगी गूंथने प्रेम-पाश वे धीरे से, रह-रह के,- मानो विश्व-मोहिनी माया, ले सुराग-फूलो को, छिटका जीवन-पथ में, हरती हो विराग-शूलो को। तीक्ष्ण कण्टको मे जीवन जब उलझ-उलझ जाता है, तब ऐसे ही पुष्पो मे वह प्राणो को पाता है , महा तपस्वी जनक देव के राग-रहित उपवन मे, फूल रहे है ये सासारिक मधुर पुष्प उस मन में ।