पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/७५

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इसीलिए द्वापर मे प्रभु ने निज पुण्या वाणी से-- कर्मवीर की तुलना की है जनक देव ज्ञानी से,* स्थितप्रज्ञ के सब गुण अकित है इनके जीवन में, इन ने ऐक्य-भाव पाया है घर मे, निर्जन वन मे । १८६ शीत, उष्ण, सुख, दुःख आदि इन सस्पर्शज भावो मे,- प्रतिकूला, अनुकूला स्थिति मे, सब दैहिक चाको मे,- विकट कर्मयोगी ने स्थापित किया साम्य-भावो को, सह सकते है निश्चलता से ये तीखे घावो को । माता को चुप चाप गूथते देख ऊम्मिला बोलो - ध्यान भग करने आई हो ज्यो चञ्चलता भोली, "कैसे ग्थ रही हो चुपके-से तुम अपनी माला ? किसने तुम पर, री मॉ, मोहन म्क मत्र यह डाला ? १८८ कब से पूछ रही हूँ मैं, पर तुम तो चुपके-चुपके- टाल रही हो, ऑखमिचौनी खेल रही हो छुप के, यदि न बताना हो तो माँ, फिर वैसा ही तुम कह दो, जामो कभी न पूछूगी यदि ऐसा ही तुम कह दो।" अपनी छोटी-सी को मा ने स्वप्निल नयन उठाकर- नख से शिख तक देखा धीरे-धीरे से मुसका कर, उसकी आँखो मे अनमनपन-सा कुछ-कुछ छाया था, कमल विनिन्दित मुख पर कुछ-कुछ रोष-भाव आया था।

  • कर्मणैवहि ससिद्धिमास्थिता जनकादय

--गीता अ. ३ ठलोक २०