पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/७७

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2 "बेटी, तुमने कभी, सवेरे ऊषा को देखा है कभी रक्तवर्णा प्राची दिशि को क्या अवलोका है ? रवि की प्रखर किरण से जल को क्या खिचते देखा है ? धन मेघो से भू-हत्तल को क्या सिचते देखा है ? जिन नियमो से अग्नि-शिखा में लाली आ जाती है, जिन नियमो से प्राची, सुन्दर अरुणाभा पाती है, उसी नियम से, जनक देव से में याँ प्रान मिली हूँ, उसी नियम से उनके उपवन मे मै अान खिली हूँ १६७ अब तुम समझी? जैसे प्राची मे लाली आती है,- त्यो तव तात चरण के पाते लाली छा जाती है,- मेरे मुख पर, मेरी बेटी, और कहूँ क्या तुझको ? तू न-ही-सी ही है, इस क्षण किमि समझेगी मुझको?" ? "माँ, मै समझी हूँ कुछ-कुछ वह यह कि पिता भी मेरे- सूर्य सदृश, तुम-सी प्राची को, हॉ, रहते है घेरे अब तुम यह बतलाओ, माँ, तुम माला क्यो देती हो क्यो उनकी ग्रीवा से तुम फिर उसको ले लेती हो?" १६६ "अरी ऊम्मिले, तूने निशि में देखा है वह चन्दा, अखिल तारिकाये जिसके मन में डाले है फन्दा तेरे तात चरण को मैं यह भक्ति-पाश देती हूँ, उसके बदले मे मै उन से नेह-पाग लेती हूँ । ?