पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१० धीरे से यो वचन निवेदित कर रानी मुसकाई, उस सुस्मिति पर मैं ऊषा की वाटू ललिन निकाई, उपमे तुम अब कहाँ छिपी हो यो बन लज्जाशीला? जनक-प्रिया की सुस्मिति-रेखा की देखो यह लीला। २११ पितृदेव के अक-स्थित हो विमल ऊम्मिला बोली,- ज्यो, कुहुकिनी कोकिला ने स्वर की मञ्जपा खोली, "तात, आप कहिए वे बाते, पूछी जो जीजी ने, क्यो कोई माता से उसकी प्यारी पुत्री छीने ?" २१२ "हाँ,बेटी अम्भिले, तुम्हे मै यह सब समझाऊँगा, पर, तुम समझ सकोगी तुम को मैं जब समझाऊँगा ? देखो, बडी-बडी नदियाँ ये सब बहती जाती है, विस्तृत पथ के इस प्रवाह-श्रम को सहती जाती है। २१३ क्या तुम मुझे बता सकती हो कोई कारण इसका प्रेरित करता है इन सबको आधिपत्य वह किसका ? इस विशाल सरणी की धारा की गति है सागर में, इसीलिए यह चली जा रही है निज गहरे घर में २१४ और सुनो, देखो, सजीव ये पक्षीगण है जग मे, कैसे साथ चले जाते है ये निज जीवन-मग मे । है कपोत के सग कपोती-गण क्रीडा शीलाएँ , देखो, ये सब मिल-जुल करती है अनेक लीलाएँ । ? 1