पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/८२

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, 1 11 २२० रानी के कोमल कर अपने दृट हाथों में लेकर,- बोले वचन नृपति, कान्ता को अपनी माला देकर- "सुनो, सुनयने, मुझे ऊम्मिला-सीता के जीवन में,- अति द्रुत परिवर्तन दृग्गोचर होता है क्षण-क्षण मे। २२१ इन के भावी पथ को निश्चित करने की तैयारी,- इसी समय से करना कैसा तुम समझोगी, प्यारी ?" "आर्यपुत्र, मेरी नन्ही-सी दोनो है बालाय उनको उलझाए है मेरी गोद और शालायें २२२ सम्प्रति बन्धन मे न डालिए इस लौनी लघुता को, यो न निमन्त्रित करिए,इन के मदु शिर पर गुरुता को, "तुम मेरे सारे भावो को, प्रिये, न समझ सकी हो, इसीलिए तुम इस आशका मे आकर अटकी हो । २२३ मैं अपनी प्यारी कन्याओ के प्रवास के पथ म- डागा न कुबाधा उनके भावी जीवन-रथ मे । मेरी केवल यह इच्छा है, ये दोनो मम तारे- दो आर्यो के शुभ्र वक्ष-नभ मे खिल जाएँ प्यारे । २२४ इसीलिए बस इसी समय से एक यज्ञ के मिस से,- आर्य सिहगण के छोनो को मै देखू गा, जिस से,- कुछ दिन में कोई सुयोग्य नर वीर-द्वय मिल जावे, जो मम अन्तस्तल की छाया को पा कर सुख पावे ।