पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/९१

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द्वितीय सर्ग 1 'एक बार सूखा जाता था एक बृहन्नद किसी प्रकार, पर चारो दिगि से बह आए सोते चार-मिले मॅझधार फिर तो सुनद लगा घहराने, लहरे उठी, लगी लहराने, त्रास मिटा यो, ज्यो तम, रवि कर जब फहगने , अवयं नृपति आनद मग्न है, मन में अमित मिहाए है, अपने चारो ओर दख रूप लुभाए है । नाम नाश का निज नूतन ? बहुत दिनो तक धारण की जो रघुकुल-यश पनाका यी- अपने ही कन्धो पर हिय मे चुभती दुख शलाका थी उस को कौन संभालेगा अब ? कोन सुदृढ कर थामेगा अब रघु का धनुष-बाण क्या होगा ? किमि अरि-हिय मे शालेगा अब ? इसी प्रकार सोचते थे नृप, इतने ही में बहा समीर,- अग्निकुड से अष्ट भुजाये उठी सँभाल धनुष-तूणीर । (5) सचिव, अमात्य, सुमन्त्र मन्त्रियो से आवृत वे रघुकुल वीर- राज सभा में अति शोभित हे , बैठी महाजनो की भीर , लोल विलोचन अति मुकुलित है, सब के रोम-रोम पुलकित है, नव प्रसन्नता की रेखा से अोष्ठ सुसम्पुट मृदु विकसित है । मधुर-मधुर गाती गणिकाये जन-मन की अब थाह नही, सखि कल्पने, लगा तू डुबकी , और दूसरी राह नहीं । ७७