पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/९४

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ऊम्मिला आज 1 खिल कर,- पुरजन, सदा काल से हम पर आप कृपा करत आए, सदा हमारी राज-काज की चिन्ताएँ हरते पाए , लाए नेह-अजलियाँ, एतदर्थ ये रोमावलियॉ- है कृतज्ञ, पुलकित, आह्लादित और-कहाँ है शब्दावलियाँ ? आप सज्जनो से हम क्या अब कहे ?-स्वय है आप बडे, रघुकुल के शुभचिन्तक है-है राज्यासन के स्तम्भ खडे । (१४) आर्य धर्म मे यह वैवाहिक बन्धन परम धर्ममय है, दो आत्माओ का मिश्रण है, अभिन्नत्व की जय-जय है , एक दूसरे से रल-मिल कर,- जैसे दो कलिकाएँ ईश चरण मे ढुल जाना है , या फिर जीवन है पकिल सर मेरे पौर जानपद के गृह पारस्परिक प्रेम सपूर्ण- सदा रहे, अनमिलता की ये ककरियाँ हो जावे चूर्ण ।" यो कह नरपति जयोद्घोष के मध्य शान्त हो मूक हुए, पौरजनो के लोचन-मुक्ता ढरक-ढरक दो टूक हुए , प्रॉखो को कुछ-कुछ समझाते, अरुझी वाणी को सुरझाते, नरपति के भाषण से विगलित- स्नेह-सिन्धु मे थे उतराते उठे एक प्रतिनिधि अपने हिय के प्रसून बिथराने को , नवल दुलहिनो के चरणो मे निज अजलि ढरकाने को । J +