पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९१ )

स्वप्न ही में उनको जब देखा तो उनकी होगई।
वह मेरे स्वामी हुए मैं उनकी दासी होगई ।।
ऊषा अब अनिरुद्ध की अनिरुद्ध अब ऊषा के है।
मिलगई वो गाँठ जब तब एक जोड़ी होगई ।।

चित्र०--तो याद रक्खो, तुम्हारे पिता बड़े जालिम हैं, के किसी तरह यह सम्बन्ध नहीं होने देंगे।

ऊषा-सम्बन्ध तो होचुका, भब उसे वे क्योंकर बदल देगे?

चित्र०-इतनी जबरदस्त अग्नि है ?

ऊषा--हाँ, यह अग्नि भष पत्थर के भीतर रहनेवाली वह चिनगारी नहीं है जो घोट खाके प्रकट होती है।

चित्र०--तो?

ऊषा--यह तो जशलामुखीहोकर फूटी है !

चित्र०--फिर इसके बुझाने का साधन ?

ऊषा--प्रीतम का दर्शन।

चित्र०--अच्छा को तैयार होजामो!

ऊषा--काहे के लिए?

चित्र--प्रीतम के दर्शन के लिए।

ऊषा--क्या इस एकडंडी महल में, जहाँ मेरे प्राणनाथ कैद है-मुझे लेच नी

चित्र०--नही चलूंगी तो चलने के लिए वैसे ही कहरही हूं?

ऊषा--परन्तु वहाँ तो नंगी तलवारों के पहरे हैं-

किस तरह उम्मीद जायगी मना के पास में । चित्र०--जिसररह परवाना जाता है शमा के पास में !!