पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१२३

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कभी उठते हैं मिलने को कभी धावे लड़ाई को।
सभी कुछ देवता करते हैं दुनिया की भलाई को।।

सुद०--अच्छा तो यह सेवक चलने को तैयार है।

श्रीकृ०--बस तो अब सिर्फ गरुड़ को बुलाने का इतिजार है। क्योंकि वहां पर शीघ्र पहुंचाने का उसी को अधिकार है।

[गरुड को स्मरण करना और उसका पाना ]
 

गरुड़--(आकर) भगवन् प्रणाम !

श्रीकृ०--आओ, गरुड़मी आओ !

गरुड़--क्या आज्ञा है स्वामिन् ?

श्रीकृ०--तुम्हारे मित्र सुदर्शन ने जो भूल की है वह तुम्हे मालूम है ?

गरुड़--हां महाराज, पहरेदार की ग़ल्ती मुझे मालूम है ।

श्रीकृ०--बस, तो उसी के परिणाम में इनके साथ साथ तुम्हे भी थोड़ा सा कष्ट उठाना होगा।

गरुड़ वह क्या ?

श्रीकृ०--मेरे साथ वाणासुर के नगर को चलना होगा । वहाँ अनिरुद्ध नागपाश में बंधा हुआ पड़ा है । तुम्हें उस पाश का खडन करना होगा।

गरुड--यह तो अपनी रोज़ की खुराक है। कट को क्यों यह तो दावत की बात है !

श्रीकृ०--अच्छा तो चलनेकी तैयारी करो। [दोनों का माना]