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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/२४

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( ७ )

पार्वती-इसमें ब्रह्मा जी की क्या आवश्यकता है ? यदि आप आज्ञा दें तो दूसरा वर मैं दे सकती है। परन्तु मेरे वर से इसे पुत्र नहीं पुत्री प्राप्त होसकती है।

शिव-पुत्री ही सही, पुत्री प्राप्त होने पर भी इस की तपस्या समाप्त होसकती है।

पार्वती-ऐसा है तो चलिये और भक्त की इच्छा पूर्ण कीजिए।

(शिव-पार्वती का कैलास से प्रस्थान और शिव की पिंडी में प्रवेश)

वाणासुर- (प्रार्थना)

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् ।
मन्मथेश्वर,मन्मथेश्वर, मन्मथेश्वर त्राहिमाम् ॥
गंगधारी तापहारी सौख्यकारो एहिमाम् ।
कष्ट गंजन भय विमअन इष्टदानं देहिमाम् ॥

(प्रार्थना की समाप्ति पर शिवजी की पिंडी का फटना और उसमें शिव-पार्वती का दिखाई देना)

शिव-पार्वती-[एक साथ ] वरंब्रूहि, वरंब्रूहि, वरंब्रूहि ।

वाणासुर-[आखें खोलकर ] जय, अय, भूतभावन, शंकर महादेव की जय:-

जिनके भ्रकुटि-विलास में, विश्व सफल लय होय ।
आये जन के सामने, गिरिजा शंकर लोय ॥
पूर्ण तपस्या होगई, इस सेवक को श्राज ।
वर देने को स्वयं ही, आये श्री महाराज ॥
शिव-माँगो, भक्तराज माँगी ! क्या इच्छा है ?

वाणासुर-प्रभो, आपतो अंतर्यामी हैं, घट घट की जानने वाले हैं:-