पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/२८

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विष्णुदास-विष्णु की भक्ति ? छोड़ दूंगा । कब-जब इस संसार में यह शरीर नहीं रहेगा, जब इस शरीर में यह हृदय नहीं रहेगा, अब इस हृदय में यह श्वास नहीं रहेगी, जब इस श्वास में धारणा नहीं रहेगी. और जब इस धारणा में गोविंद नहीं रहेंगे!

वाणासुर--बकवादी भक्त, तेरी बकवाद इस शिवराज्य में नहीं चलेगी। वैष्णव धर्म की टहनी इस शैव सम्प्रदाय के शासन में कभी नहीं फूले फलेगी--

दबाढूंगा, कुचलदूंगा, निगल डालूंगा चुटकी में।
तुम ऐसे तुच्छ मुनगों को मसल डालूंगा चुटकी मे ।।

विष्णुदास--मसल डाल ! मुझे मसल डाल या कुचल डाल इसकी परवाह नहीं । परन्तु जालिम राजा,यह तेरी प्रजा का एक बूदा ब्राह्मण-अपनी बुढ़ापे की आवाज में शेर की तरह गरज कर--तुमे यह चेतावनी देता है कि वैष्णव सम्प्रदाय का अपमान न कर, नहीं तो:-

आयेंगे भूकम्प तेरे राज में, गाज पट्टजायेगी इस साम्राज में ।
उतने संकट सिर पेभायेंगे तेरे, जितने हीरे हैं तेरे इस ताज में।।

वाणासुर--तेरी इन धमकियों से मैं डरनेवाला नहीं हूं ! अगर अपनी जिन्दगी चाहता है तो शेष सम्प्रदाय में आजा । अपने विष्णु की भक्ति छोड़दे ।

विष्णुदास-फिर वही बात, फिर वही बात:-

सूर्य चाहे अपनी गर्मी छोड़ दे, शेष चाहे अपनी शक्ती छोड़ दे ।
पर नहीं होगा यह तीनों कान में, विष्णु सेवक विष्णुभक्ती छोड़ दे ॥