पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/३५

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एफ वैष्णव--हा समझा, इससे आप का मतलव शायद यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों में स्वतन्त्र है।

कृष्णदास--हां । अब रही यह बात कि इस संगठन से परस्पर में द्वेष पड़ता है; सो यह बाद भी नहीं है।

एक वैष्णव--सो किस प्रकार ?

कृष्णदास--सुनो और समझो, प्रीति बराबर वालों में होती है, छोटे-बड़ों में नहीं होती। बड़ी मछली हमेशा छोटी मछली को खा जाया करती है । बड़ी चिड़िया हमेशा छोटी चिड़िया को सताया करती है । परन्तु जहां दो बराबर की शक्तियाँ होगी, वहां एक से दूसरी डरती रहेगा; और इसी कारण परस्पर मे लड़ाई नहीं होगी।

तीसरा वैष्णव--तब तो संगठन एकता का मूल है।

कृष्णदास--हाँ, इसीलिये तो मेरा कहना है कि संगठन करो।

एक वैष्णव--तो यह संगठन इस नये युग की नई कल्पना है ।

कृष्णदास--नहीं, प्राचीन रचना है। राक्षसों के संगठन ही के कारण रावण ने सुरपति तक को परास्त कर डाला था । सूर्य, चन्द्र, वरुण, कुवेर और यमराज तक को बंदीग्रह में डाला था। उसी रावण को बानरों के संगठन द्वारा श्री रघुनाथ जी ने आन की भान में हरा दिया। इस प्रकार संगठन की शक्ति का चमत्कार सारे संसार को दिखा दिया ।

नाश उसका तब हुआ, जब संगठन जाता रहा ।
ठनगई भाई से तो, सब कांकपन जाता रहा ॥

एक वैष्णव--बस, निश्चित हो गया कि संगठन वैष्णवों की आन है।