पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/४६

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वाणासुर--हैं ! वैष्णव के साथ पाणिग्रहण होमा ! बस, बस, नारदजी महाराजा, बन्द कर दीजिए इस जन्म-पत्रिका को । यदि ऐसे ग्रह हैं तो फाड़ फेकिए इस जन्म-पत्रिका को । युद्ध होने की चिन्ता नहीं, रक्तपात होने का दुःख नहीं, परन्तु वैष्णक को कन्या विगही जाय यह किसी प्रकार सहन नहीं :-

भौंचाल आये भूमि पै, या सिन्धु सूखजाय ।
आँधी उठे तूफान छठे, विश्व डगमगाय ।।
संसार की सब आफतें चाहे करें तबाह ।
पर वैष्णव के साथ में होगा नहीं विवाह ।।

नारद--वास्तव में यह घटना बड़ी शोचनीय होनायगी । नारायण, नारायण।

वाणासुर--परन्तु, होतो जब जायगी जब मैं होजाने दूंगा ! नारदजी आप जानते हैं कि मैं शिवजी का अनन्य भक हूं। शैव सम्प्रदाय का प्रचारक हू। जबतक पृथ्वी पर मेरा यह पॉव है, इस पांव के ऊपर यह छाती है, इस छाती के ऊपर यह हाथ है,और इस हाथ में यह जबर्दस्त गदा है, तबतक कौक ऐसा माई का लाल है जो युद्ध में मुझे परास्त कर सकता है।

मैं वह शक्ती का पुतला हू, सभामें रिपु को लीलूंगा ।
गरजकर शेर की मानिन्द, रिपु का रक्त पीलूंगा॥

नारद--राजेन्द्र की शक्ति ऐसी ही है।

वाणासुर--नारदजी, मैं वैष्णव सम्प्रदाय का कट्टर शत्रु हूं। उसरोज इसी शत्रुता के कारण मैं ने विष्णुदास नामक एक वैष्णव को प्राण-दण्ड दे डाला था। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि मेरी प्रजा के बहुत से मूर्खलोग मेरा सामना करने को आ गए ।