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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/९

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त्तम नाटकों के अनुवाद हुए और भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र राजा लक्ष्मणसिंह और बाबू बालमुकन्द गुप्त जैसे विद्वानों ने अपनी लेखनी उठाई। समय आया कि लोग अनुवाद के जूठे भोजन से घबड़ागये और मौलिक नाटकों की इच्छा प्रकट करने लगे। उर्दू लेखकों ने हिन्दी पढ़ना आरम्भ की। धार्मिक और पौराणिक कथानकों को लेकर नाटक लिखे जाने लगे। रामायण और महाभारत की छानबीन होने लगी। क्या यह हिन्दी भाषा और मुसलमान जाति के लिये कम गौरव की बात है कि श्रीयुत आग़ाहशर ने 'भक्त सूरदास' और 'मधुर मुरली' नामक अपने दो अच्छे नाटक हिन्दी में लिखे।

इस समय जो नाटक हमारे सामने है उसका नाम 'ऊषा अनिरुद्ध' है। नाटक पढ़कर भूमिका लिखने और नाटक को स्टेज पर देखकर भूमिका लिखने में उतना हो भेद है जितना बिना खाँड का दूध पीने और खाँड डालकर दूध पीने में है। मैंने इस नाटक को स्वयम् श्रीसूरविजय नाटक समाज के स्टेज पर खिलते देखा है। मैं तो सुना करता था कि नाटक लिखना महीनों और बर्षों का काम है, परन्तु यह नाटक बीसही दिन में लिख दिया गया, क्या यह अद्भत बात नहीं है? पंडित राधेश्यामजी अभिमन्यु और प्रह्लाद जैसे लोकप्रसिद्ध नाटकों के रचयिता हैं। यह दोनों नाटक पंडितजी के यश और कीर्ति को जितना बढ़ानेवाले हैं, उससे कम वे हिन्दी भाषा का भी मान बढ़ाने वाले नहीं हैं। उक्त पंडितजी द्वारा 'ऊषा अनिरुद्ध' का लिखा जाना नाटक की उत्तमता का पर्याप्त प्रमाण है!

नाटक का कथानक श्रीमद्भागवत से लिया गया है। ऊषा राजा बाणासुर की पुत्री है। वह अनिरुद्ध कुमार से विवाह करना चाहती है, दोनों के प्रेममार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं, परन्तु अन्त में सफलता प्राप्त होती है। नाटक में दूसरे अंक का चौथा दृश्य अर्थात् 'ऊषा का महल वाला सीन' मुख्य है। यही समस्त नाटक की कुंजी है, इस से पूर्व का सारा कार्य दोनों प्रेमी और प्रेमिका के मिलन के हेतु होता है