पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/९७

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कृष्ण०--[ ऊपर को विनीत भाव से देखते हुए ] दीननाथ, बहुत होगया। अब शैव-वैष्णवो ही के नही, सार संसार के झगड़ो का नाश करके विश्व-प्रम फैलाइए और अपने प्रेम के सागर मे सारे संसार को नहलाइए-

गाना

फिर से इस देश को तू अपना वनाले आजा।
नाव मंझधार में है नाथ स्वचाले अाजा ॥
दर बदर तेरे बिना ख्वार फिरा करते हैं।
अपने गिरते हुए भक्तों को उठाले आमा ।
द्वेष-रावण ने तेरे विश्व को फिर खाया है।
अपना वह वाण-धनुष शीघ्र चढ़ाले आजा ॥
रोशनी के बिना अंधे हैं जगत के वासी ।
इनकी आँखों में ओ श्रांखों के उजाले श्राजा ॥

(चलजाना)
 

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छठा दृश्य

(महाराज उग्रसेन का दरबार)

उग्रसेन--क्यों उद्धव, तुम्हारा क्या खयाल है । प्रजा अब पहले से अधिक सुखी है या नहीं ?

उद्धव--क्यों न सुखी होगी ! जिस प्रजा ने कंसके अत्याचार सहे हों क्या वह ऐसा राज्य पाकर भी सुखी न होगी ?