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एक घूँट

रसाल––मेरी 'एक घूँट' नाम की कविता मधुमालती गाती रही होगी।

वनलता––क्या नाम बताया––'एक घूँट'? उहूँ! कोई दूसरा नाम होगा। तुम भूल रहे हो; वैसा स्वरविन्यास एक घूँट नाम की कविता में हो ही नहीं सकता।

रसाल––तब ठीक है। कोई दूसरी कविता रही होगी। तो मैं जाऊँ न!

वनलता––(स्मरण करके) ओहो, उसमें न जकड़े रहने के लिये, बन्धन खोलने के लिये, और भी क्या-क्या ऐसी ही बातें थीं। वह किसकी कविता है?

रसाल––(दूसरी ओर देखकर) तो, तो वह मेरी––हाँ-हाँ-मेरी ही कविता थी।

वनलता––(त्योरी चढ़ाकर, अच्छा तो आप बन्धन तोड़ने की चेष्टा में हैं आज-कल! क्यों, कौन बन्धन खल रहा है?

रसाल––(हँसने की चेष्टा करता हुआ) यह अच्छी रही! परन्तु लता! यह क्या पुराने ढङ्ग की साड़ी तुमने पहन ली है? यह तो समय के अनुकूल नहीं; और मैं तो कहूँगा, सुरुचि के भी यह प्रतिकूल है।

वनलता––समय के अनुकूल बनने की मेरी बान नहीं, और सुरुचि के सम्बंध में मेरा निज का विचार है। उसमें किसी दूसरे की सम्मति की मुझे आवश्यकता नहीं।

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