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एक घूँट


नहीं; अच्छा, मैं भी खूब छकाऊँगी, तुम लोग बड़े दुलार पर चढ़ गई हो न!

रसाल––(निश्वास लेकर हाथ हटाते हुए) इन लोगों के अतिरिक्त और ओई दूसरा तो हो ही नहीं सकता। इतने नाम लिये, किन्तु......किन्तु एक मेरा ही स्मरण न आया। क्यों वनलता?

वनलता––(सिर पर साड़ी खींचती हुई) आप थे? मैं नहीं जान.........

रसाल––(बात काटते हुए) जानोगी कैसे लता! मैं भी जानने की, स्मरण होने की वस्तु होऊँ तब न! अच्छा तो है, तुम्हारी विस्मृति भी मेरे लिये स्मरण करने की वस्तु होगी। (निश्वास लेकर) अच्छा, चलती हो आज मेरा व्याख्यान सुनने के लिये?

वनलता––(आश्चर्य से) व्याख्यान! तुम कब से देने लगे? तुम तो कवि हो कवि, भला तुम व्याख्यान देना क्या जानो, और वह विषय कौन-सा होगा जिसपर तुम व्याख्यान दोगे? घड़ी-दो-घड़ी बोल सकोगे! छोटी-छोटी कल्पनाओं के उपासक! सुकुमार सूक्तियों के संचालक! तुम भला क्या व्याख्यान दोगे।

रसाल––तो मेरे इस भविष्य अपराध को तुम क्षमा न करोगी।