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एक घूँट


आनन्दजी के स्वागत में मुझे कुछ बोलने के लिये आश्रमवालों ने तंग कर दिया है। क्या करूँ वनलता!

वनलता––(मौलश्री की एक डाल पकड़कर झुकाती हुई)

आनन्दजी का स्वागत! अब होगा! कहते क्या हो! उन्हें आये तो कई दिन हो गये।

रसाल––(सिर पकड़कर) ओह! मैं भूल गया था, स्वागत नहीं उनके परिचय-स्वरूप कुछ बोलना पड़ेगा।

वनलता––हाँ परिचय! अच्छा मुझे तो बताइये यह आनन्दजी कौन हैं, क्यों आये हैं और कब! नहीं-नहीं, कहाँ रहते हैं?

रसाल––मनुष्य हैं, उनका कुछ निज का सन्देश है; उसी का प्रचार करते हैं। कोई निश्चित निवास नहीं। (जैसे कुछ स्मरण करता हुआ) तुम भी चलो न! संगीत भी होगा। आनन्दजी अरुणाचल पहाड़ी की तलहटी में घूमने गये हैं; यदि नदी की ओर भी चले गये हों तो कुछ विलम्ब लगेगा, नहीं तो अब आते ही होंगे। तो मैं चलता हूँ।

(रसाल जाने लगता है। वनलता चुप रहती है। फिर रसाल के कुछ दूर जाने पर उसे बुलाती है)

वनलता––सुनो तो!

रसाल––(लौटते हुए) क्या?

वनलना––यह अभी-अभी जो संगीत हो रहा था (कुछ सोचकर) मुझे उसका पद स्मरण नहीं हो रहा है; वह......

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