पृष्ठ:कंकाल.pdf/१०१

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देना चाहती थी । वह अपनी कोठरी, जो बंगले में हर उसी आग में घोडी दूर पर घी, सात करने लगीं । एण्ट्रो दालान में बैठी हुई थे । रारा ने आकर यिजग से पू–भोजन सा परियेगा, मैं बनाऊँ ? विजय ने कहा-आपकी बों पर हैं। मुझे कोई संझॉय नहीं । आपका स्ने होकर जाने का साहुप्त मुद्दाम नहीं । इधर सरजा फ बहुत दिनों पर दे। अतिथि मिले । दुसरे दिन प्रभात की किरणों में अब विशय की पारी में प्रयैा किया, तब रारा गरी विजय को दे रही थी । वह सोच रही पी-पई भी किसी म का। पुल है—अहा ! कैसे स्वहु की सम्पत्ति है ! दुलार से यह दाँटा नहीं गया, अर्थ सपने मन का ही गया ! विजय की आँख मुली । अभी सिर में पीड़ा यी । इत्तनै तकिये से सिर उठाकर देखा—सरला का वात्सल्यनुर्ण मुर। उसनै नभत्तार किया। बापम पायु-सेवन कर लौटा आ रहा था । उसने भी ---विशय वायु, अर पीड़ा तो नहीं है? अब वैगौ ता नहीं है; इस कृपा के लिए धन्यवाद । धन्यवाद का आवश्यकता नहीं। हाय-मूह घोकर आए, तो कुछ दिखागा। आपली बार में प्रकट है कि दृश्य में फनी-सम्बन्धी नुचि है !—वभिम में नन्हा ।। मैं अभी अता हैं कहता हूँमा विजय नेठ के बाहर चला झाचा । सुरक्षा नै माहा–देखा, इसी कौठने के दूसरे भाग में सब सामान मिलेगा । झटपट चाय के समय में अर जाऔं ।--विभय चेपर गया। | प्रगल के यूवा के नीचे मेज पर एक फूलदान बना है। उसमें आठ-दस गुलाब घर फूल बगे हैं। याथम, लतिका, घण्टी और विजय बैठे हैं। रामदास पाम से आया | राय लोगों ने चाय पीकर पाते आरम्भ की। विभन्न और घष्टी के संबंध में प्रश्न हुए, और उनका चलता ठुझा चतर मिला--जिवप काशी का एक धनी युवर ६ र पण्डी उसकी मित्र हैं । यहाँ दौन भने-गि आये हैं। बाथम एक पक्का दुकानदार था। उसने मन में विचारा कि, मुझे इससे क्या सम्भव है कि ये कुछ विष खरीद से; परन्तु मुखिका को पट्टी की ओर देखकर आश्चर्य हुआ, उसने पूछा- क्या आप लोग दिन्ह हैं ? विनम ने कहा- इसमें भी कोई संदेह है ? सरसा दूर त इन लोगों की बातें सुन रही थी । उसको एक प्रकार की ६२ : प्रसाद वाङ्मयध्यानसूची