पृष्ठ:कंकाल.pdf/१०५

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| अब तिने दिनों पर विजय होता की कोर पर बैठा पा । भष्टी सतिका नैः सायं पातें करने के लिए चली गई थी। जिम दो सरला ने अकेने रागर महान्चैट ! तुम्हारी भी माँ होगरे, उसको तुम एकबारगी भूतकर इरा छोकही को पिए पारे-डेर मारे-मारे छयों फिर रहे हो ? ऊरह, ई कितनी दुखी होगी ! विशय सिर नीचा किये हुए रा---गुरता फिर करे दाग-विजय ! नेजा होने लगता है, हृदय कोटगे इगता है, के छटपटाकर उसे देखने के लिए बाहर निकलने प्रगती हैं, उटी साँस बनकर दौडने लगती है । पुत्र का स्नेह, बेड़ा पागर स्नेह है, विज़म ! स्त्रियाँ ही स्नेह की विचारक हैं। पति के प्रेम और पुत्र के स्नेह में या अन्तर हैं, यह उन ही विदित है। जहा, तुम निवारे लड़के भया जानोगे । लौट जाओ मेरे बच्चे 1 अपनी माँ की मुनी गोद में लौट जाओ। -सरला का गम्भौर मुख किसी व्याकुल अफ से इस समय विकृत हो रहा मा । विजम को अाश्चर्ग हुई। चने कहा—ा आपके भी कोई पुत्र था? । विजय, बहुत सुन्दर था । परमस्मि कै अरदान के समान शीतल, शति- पूर्ण । । हुदमें की शादी के सदृश गर्म । मलम-पवन के सुमन पोमच मुघद स्पर्श । यह गेरी निधि, गैर सर्वस्य पा या गही, मैं कहती हैं कि है, वहीं है। वह अमर है, वई शुन्दर है, वही मेरा सत्य है । अगह मिशय ! पौस बरस हो गये उसे देखे हुए पनीस बर को युग से कुछ पर! पर मैं उसे देखकरे मरूगी । कलैक शुरवा की अखिों रे अमू गिरने लगे। इयन में एक अंधा जाकी देते हुए सरसो के द्वार पर आमा । उरो दैबले हो सरला गरज उठी--- पा ! विजय, यही है उसे से भागने वाला ! मूछो, इसी में पूछौं । | उस ने सही रखकर अपना मस्तक पृर पर है , फ्रि क्षिर बाकर बोला--माता ! छ यो हुम से भी सेफर वो मैं पेट भरता है, यही है मेरा प्रायश्चित्त है। मैं अपने पार्म का फल भोगने के लिए भगवाई झीं २६ । प्राधि धाम