पृष्ठ:कंकाल.pdf/१०९

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विचार-सागर में अबत-जर्वराती हुई, घण्ट्री म भौतमिरो के नीचे एक शिला-खण्ई पर बैठी हुई है। वह अपने मन से पूछती थी-विजय कौन है, जो मैं इसे रसालवृदय समभकर नवा वैः समान लिपटी है [ किर उसे आप-ही-आप चतर मिक्षा---तो और दूसरा कौन है मेरा ? क्षेत्रा का छौ यही धर्म है कि जो समीप अवलम्बन मिले, उसे पकड़ में और इस मुष्टि में सिर ना करके खड़ी हो जाम। अहा ! क्या मैरी माँ जैपित है ? पर विजय तो चित्र बनाने में लगा है। यह मेरा हो तो चित्र बनाता है। | तो भी मैं उसके लिए निर्जीव प्रतिमा है। कभी-कभी वह सिर उठकर मैरी | भौहों के कार को, कपोलों के गहरे-रंग नौ, देख लेता है, और फिर तूलिका फी गर्जनों से उसे हृदय से बाहर निकाल देवा है ! यह मे आरायना तो नहीं सहसा उसके विचारों में बाधा पड़ी । लाथम ने आकर घण्टी में कहा-मा में कुछ पूछ राऊचा है ? मर्मि-सिर का कपडा गुहालते हुए घण्टो नै झरू । विजन से आपकी कितने दिनों की जान-पहचान है ? बहुत पोड़े दिनों की--पी चुन्दावन से 1 सौं वह कहा था- कौन क्या कहता था-- दारोगा । यद्यपि उसका साहस नहीं थी कि मुझसे कुछ अधिक है; पर | चसका अनुमान है कि आपने विजय मीं से भी न है ! | पेण्टी किसी की कोई नहीं है; जो उनकी इच्छा हो वहीं करेगा। मैं आज ही बिजय बाबू में कहुँगो कि बहु मुई का किसी दुसरे घर में बनें । -वाम ने देखा कि वह स्वतन्त्र मुवती तनवर खड़ी हो गई। उसकी नसे फूल ही मी ! इस समय लतिका में नहीं पहुच कर एक काण्डु उपित कर दिमा। बहुत बाथम की ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए पूछा तुम्हारा नया अभिम था ? १० : प्रसाइ बाम