पृष्ठ:कंकाल.pdf/११३

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वृन्दावन से दूर एक हरा-भरा टोला है, यमुना उस से टकराकर यहूती है। बड़े-बड़े वृक्षों की इतनी बहुतायत है । वह टोता दूर से देखने पर एक बड़ा छायादार निकुंज मालूम पडता है । एक और पत्थर की सीढ़ियों है, जिनसे भद्- कर कार जाने पर एक छोटा-सा श्रीकृष्ण का मन्दिर है। और उसके चारों ओर कोठरी और दालानें है । गोपनी रणरण उस मन्दिर के अध्यक्ष, एक राठ-पैङि बस के तपस्वी एप है। इनका स्वछ वस्त्र, घबड़ वैज्ञ, मुमत की अग्मिी और भक्ति से भरी थे, अलौकिक प्रभा का सुजन करती हैं। मूत के सामने हो दालान में ये प्रातः बैठे रहते हैं। कोरियों में कुछ युद्ध साधु और वयस्का लियाँ रहती हैं। सब भगन् का सात्विक प्रसाद पाकर सन्तुष्ट और प्रसन्न है। यमुना भी पही रहती है। एक दिन कृणणरण बैठे हुए कुछ लिख रहे थे । उम कुशाराम पर लेखन सामग्री ही थी । एक साधु बैठा हुआ ईन' पत्रों को एम' कर रहा था। प्रभात अभी शरुण नहीं हुआ था, परान्नु का शीतल पवन कुछ भी की आवश्यकता उत्पन्न कर रहा था । यमुना उस पद में झाडू दे रही थी । गोगामी में सभी बन्द करके साधु से वहा–इन्हें समेटकर रख दो । सामु नै लिपित्री को घird हुए पूछा--आज वो एकादशो है, भारत को 3 न होगा ? नहीं। - साधु गल गया। यमुना प्रश्न झाड़, नगा रही थी। गोस्वामी ने सस्नेह पुकारा यमुने ! | यमुना छाट, रखकर, हाथ जोड़कर सामने आई। व्रणशरण ने पूछा- बेटी ! तुझे कोई फष्ट तो नहीं है ? नहीं भाराम ! यमुने ! भगवान् दुखियों से अयन्त स्नेह करते हैं। दु:ख गगनु का सात्विक धारा १ गंगागर महार है । इसे पार एक बार अन्त करण प स गर में 1०४ : प्रसाद वाड्मय