पृष्ठ:कंकाल.pdf/११७

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गोस्वामी जी की आज्ञा है कि ..-आगे कुछ कहने में मंगल असमर्थ हो गया, जराका गला भरने लगा। जो वस्तु चाहिए, उसे भण्डारौजी रो जाकर कहिए, मैं कुछ नही जानती है। यमुना अपने काल्पनिका सुख में भी वाधा होते देकर अधीर हो उठी। मंगत ने फिर संयत्त स्वर में कहा तुम्ही से कहने की आशा हुई है। अग्रकी ममुना ने स्पर पहुबान और सिर उठाकर मंगल को देखा । दोष पौड़ा से वह कलेजा थामकर बैठ गई। विद्गुढंग से उसके मन में महू दिनार नाच उठा कि मंगल के ही अत्याचार के कारण मैं वात्सल्य-मुख से वशित हैं । इमर मंगल ने समझा कि मुझे हिचानवर ही बहु तिरस्कार कर रही है। श्रागै कुछ न फह वह सौट डा। गोस्वामीजी यह पहुँचे तो देखते हैं--मंगल सौटी जा रहा है और यमुना बैठी हो रही हैं। उन्होंने पूछा-या है बेटी ? | यमुना हिचकियाँ लेबर रोने लगी ! गोस्वामीजी थडे सन्देह में पड़े । कुछ कात तक पढे रहने पर थे इतनी भी हुए चले गये मिति सावधान करके मेरे पास आकर सब बात कह जाना ! यमुना गोस्वामीजी को संदिग्ध आज्ञा से मर्माहत हुई और अपने को सम्हालने का प्रमन को तगी। रात-भर उसे नीद में आई। १०६ पसाब मामय